लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
बंगाली पुरुष
सुनील गंगोपाध्याय के जन्मदिन के मौके पर बहुतेरे लोगों ने बड़े गर्व से घोषित किया कि सुनील के जीवन में बहुत-सी औरतों का समागम था। मैं वहाँ बैठी-बैठी सोचती रही कि आज किसी लेखिका के बारे में कोई ऐसी बात कह सकता है कि उसके जीवन में ढेरों पुरुष थे। उसने पुरुषों से बेतहाशा इश्क किया। पुरुषों पर बेहद खूबसूरत कविताएँ लिखी हैं। लेखिका के बहु-पुरुष-गमन पर कोई गर्व कर सकता है जैसा सुनील गंगोपाध्याय के सन्दर्भ में किया जाता है? सुनील या किसी भी अन्य पुरुष के सन्दर्भ में?
बंगाली पुरुष से मेरा आखिरी प्रेम आज से लगभग डेढ़ दशक पहले हुआ था। निर्वासित जीवन में भी प्रेम, दो-एक बार दाखिल हुआ है। भिन्न भाषा में प्रेम का अहसास व्यक्त करना सम्भव है, यह बात मेरी कल्पना से भी परे थी। लेकिन मैंने देखा कि यह भी सम्भव है। पूर्व और पश्चिम के पुरुषों की मानसिकता, एक समय एक जैसे ही बिन्दु पर पहुँच जाती है। सभी एक ही किस्म का मैगालोमेनिया रोग झेलते हैं। लेकिन, आचार-विचार में बहुत बड़ा फ़र्क होता है। अधिकांश बंगाली पुरुषों की धारणा है कि मुहब्बत करनी हो, तो सात-सात औरतों से मुहब्बत करनी चाहिए और इसी का नाम शायद आधुनिकता है। (वैसे सात औरतों के साथ जो किया जाता है, उसे भडैती कहा जा सकता है, प्रेम नहीं) किसी एक औरत से प्यार करते हुए अनेक वर्ष, सुख से गुज़ारे जा सकते हैं, इस बारे में उनकी धारणा न के बराबर है। यह आधुनिकता नहीं, मेरी राय में प्राचीनता है। राजा-बादशाह या ज़मींदारों का जीवन जैसा होता था, उप-पत्नियों, रखैलों से उनके हरम भरे रहते थे। प्रायः सभी पुरुष, वही प्राचीन, पुरानी जीवन-शैली जीना चाहते हैं, खुल्लमखुल्ला न सही तो चोरी-छिपे। चोरी-छिपे न सही, तो मन ही मन। भारतवर्ष का पुरुषतान्त्रिक समाज सदियों से पुरुषों को बीभत्स तरीके से सुविधाएँ देता आया है। इन सुविधाओं ने उन लोगों को इतने ऊँचे आसमान पर चढ़ा दिया कि वहाँ से नीचे देखते हुए औरतें बिलकुल कीड़ा-मकोड़ा या अकिंचन तिनके जैसी लगती हैं। वे लोग कहीं से भी इन्सान नहीं नज़र आतीं। जिस समाज में नारी वंचित, लांछित, ज़िन्दगी भर निर्यातित हो; जिस समाज में औरत को यौन-सामग्री के अलावा और कुछ नहीं समझा जाता, उस समाज से निकल कर अचानक पश्चिम के आधुनिक समाज में जा पड़ी हो, जहाँ औरत और मर्द के बीच नंगी आँखों से देख कर समझना तो असम्भव है ही, गहराई से भी देखें तो एक सूत भी नहीं मिलता। दुनिया में जिन देशों में औरत-मर्द के बीच समानाधिकार सबसे ज़्यादा है, उन देशों में निवास करते हुए मैंने गौर किया है कि वहाँ मर्द किसी एक से मुहब्बत करते हैं, उसी के साथ ज़िन्दगी भी गुज़ारते हैं, घूम-फिर कर सैकड़ों औरतों के साथ नहीं सोते। जब आपस में प्यार ख़त्म हो जाता है, तो रिश्ता भी ख़त्म कर देते हैं। बाद में नये सिरे से शायद किसी और को प्यार करते हैं; कोई नया रिश्ता रचते-गढ़ते हैं। जिससे सच्चा प्यार करते हैं, उसके साथ नया रिश्ता कायम करते हैं। विवाह का अनुबन्ध-पत्र उन देशों में कतई ज़रूरी नहीं होता। जो चीज़ रिश्ते को टिकाये रखती है, वह कोई अनुबन्ध-पत्र नहीं, कोई और काग़ज़ नहीं, समाज की आगभभूखा आँखें नहीं, उसका नाम है-प्यार! विशद्ध प्यार। आपस में अगर प्यार न हो तो पश्चिम में विच्छेद हो जाता है। इस देश में आपस में प्यार न भी हो तो भी विच्छेद का सवाल नहीं उठता। यह सवाल इसलिए नहीं उठता क्योंकि औरत असहाय परनिर्भर होती है, क्योंकि उस पर बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी होती है; क्योंकि गृहस्थी को सँजोये रखने के लिए औरत खूबसूरत सामग्री होती है। क्योंकि वह सुन्दर कपड़े-लत्तों में सजी-धजी, उन्नत किस्म की दासी होती है।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं